एक वली से बहस करने आए मशहूर देवबंद उलेमा खुद ज़लील हुए
गंज मुरादाबाद उन्नाव ।। हज़रत मौलाना हफ़ीज़ुल्लाह साहब जो दारुल उलूम नदवा में माकूलात के बेनज़ीर आलिम थे और हज़रत मौलाना अब्दुल हय फ़िरंगी महली साहब के खास शागिर्द थे और जिन्होंने मशहूर किताब “हाशिया तसरीहुल अफ़लाक ” लिखा है, वह दौरान ए दर्स बयान फरमाते हैं कि, “मैं किसी भी सूफ़ी का कायल नहीं हूँ सिर्फ़ मौलाना फ़ज़्ले रहमान गंजमुरादाबादी साहब का कायल हूँ, वह भी इस तरह कि जब मैं मौलाना अब्दुल हय फिरंगी महली साहब से आखिरी किताबें पढ़ रहा था तो मौलाना गंजमुरदाबादी की नफ़ासत और पाबंदी ए सुन्नत की बड़ी शोहरत थी, मैंने और मेरे रफ़ीक़ ने एतिकाद किया कि पीरी-मुरीदी करने वाला पाबंद सुन्नत नहीं हो सकता तो हम दोनों ने मौलाना गंजमुरादाबादी से बहस करने के लिए गंजमुरादाबाद का सफ़र किया। मई का महीना था और गर्मी शिद्दत की थी तो हम दोनों ने रास्ते में बांगरमऊ की लबे सड़क मस्जिद में ज़ोहर की नमाज़ पढ़ी और फिर वहीं आराम किया। मस्जिद की एक जानिब बाग में चमारों की बारात मुकीम थी, एक मर्द जनाना लिबास में और एक मर्द यूरोपियन ड्रेस में ढुमकी बजाते हुए नाच रहे थे, हम दोनों मस्जिद के हाथे से देर तक यह नज़ारा देखते रहे और फिर देखते ही देखते अस्र का वक़्त हो गया और वहां से आते आते मग़रिब के बाद गंजमुरादाबाद पहुंचे.
जब हज़रत शाह फ़ज़्ले रहमान अलैहिर्रहमा की मस्जिद में दाखिल होने लगे तो हज़रत के हुजरे से आवाज़ आई, ” निकालो! इन बेहुदो को निकालो ! अलिफ़, बे आती नहीं और बहस करने चले है, क्या बाद मग़रिब किसी के यहां मेहमान बनकर आना भी सुन्नत है? क्या मस्जिद में खड़े होकर सरापा नाच का नज़ारा करना भी सुन्नत है? ”
हज़रत का यह कश्फ़ देखकर हम दोनों सहम गए और हम दोनों ने माफ़ी माँगी और तौबा की”
(इनामात ए रहमान बा तुफ़ैल व बिहक़्क़ि मौलाना फ़ज़्ले रहमान : सफ़ा 219-220)