कमरुल खान की ✍️से
बिलग्राम हरदोई ।। दोस्ती इंसानों के दरमियान एक ऐसे रिश्ते और ताल्लुक़ का नाम है उस ताल्लुक़ की एक तरफ को दोस्त कहते हैं। ये एक ऐसा ताल्लुक़ है जो दो या दो से अधिक इंसानों को मोहब्बत सच्चाई लेने देन पर भरोसा दिलाता है कभी कभी ये दोस्ती खून के रिश्तों पर भी भारी पड़ जाती है। ऐसे तमाम किस्से कहानियां सामने आते रहते हैं जिन्हें पढ़ कर या सुनकर हम सब बेसाख्ता कह उठते हैं कि दोस्ती हो तो ऐसी। शनिवार देर रात बिलग्राम के शिवा रेस्टोरेंट में आयोजित एक कार्यक्रम से फारिग होकर घर लौटा तो अपनी आरामगाह में बिछे बिस्तर पर आराम करने गया जब तकिये पर सर रखा तो अतीत के ख्यालों में गुम हो गया काफी देर तक नींद का गल्बा मेरी आंखों पर तारी न हुआ तो मैने उठ कर अलमारी में रखी एक किताब उठाई और उसे पढ़ने लगा, किसी ने क्या खूब कहा है कि खुद पर यकीन, किताबों से दोस्ती, और मेहनत की आदत अगर डाल लोगे तो कुछ न कुछ जरूर बन जाओगे यही सोच कर मैने किताब को खोला और उसे पढने लगा, इसी दौरान मेरी आखों के सामने बिलग्राम का एक ऐसा किस्सा सामने आ गया जिसे पढकर मै भी बिलग्रामी होने पर गर्व महसूस करने लगा लीजिए आप भी इस किस्से को पढ़े और अपने बिलग्रामी होने पर फख्र करें। अर्सा दराज की बात है कि मोहल्ला खतराना में बाबू गुलज़ारी लाल के मकान के पास एक लाला जी रहा करते थे वो तंगी से परेशान होकर घर से निकल खड़े हुए और दिल्ली पहुंचे वहां पर लाला जी के एक पुराने साथी और बचपन के दोस्त मियां जी निवासी मोहल्ला काजीपुरा दरबार शाही में अच्छे पद पर आसीन थे लाला जी सीधे अपने दोस्त के घर पहुंचे और वहीं रहने लगे कुछ दिनों बाद लाला जी ने बिलग्राम वापसी का इरादा किया तो लाला जी ने मियां जी से वापसी की इजाजत मांगी, मियां जी बोले यार अभी कहां जाओगे कुछ दिन और रहो लाला जी ने जब जब वापसी की इजाजत मांगी तो मियां जी यही कह कर टाल देते रहे कि कहां जाओगे कुछ दिन और रहो जब काफी समय बीत गया तो लाला जी एक दिन बीबी बच्चों की परेशानी का हवाला देकर काफी इसरार किया और बिलग्राम लौटने की आखिरकार इजाजत ले ही ली, चलते वक्त मिंया जी ने लाला जी को जरूरत से कुछ कम खर्च भी दिया जिस पर लाला जी रास्ते भर बड़बड़ा कर दिल ही दिल में अपने दोस्त को बुरा भला कहते बिलग्राम वापस आये जब घर पहुंचे तो वो अपने कच्चे मकान की जगह पुख्ता पक्का मकान देख कर सन्नाटे में आ गये और समझे कि शायद घर वाले मकान बेचकर भी खा गये फिर सोंचा की वो भी क्या करते हम दिल्ली पहुंच कर हल्वा पराठा खाते रहे और वो घर बेच कर यहां अपना गुजारा करते रहे। कुछ देर यही सोचने के बाद लाला जी ने लड़के को आवाज़ लगाई तो देखा सामने श्रीमती लालाइन जेवर से लदी छम छम करती हुईं बाहर आ गयीं अब तो लाला जी और सटपटाये और सोचने लगे यहां तो कुछ और ही रंग नजर आ रहा है घबराते हुए लाला जी ने माजरा पूंछा तो लालाइन ने कहा तुम दिल्ली से जो कुछ मुझे भेजते रहे उसे मैने बर्बाद नहीं किया हिसाब से खाया पिया मकान बनवाया और अपने जेवर भी बनवा लिये। ये सुनकर लाला जी समझ गये और आंखों में आंसू आ गये अपनी डबडबाती हुईं आंखों में आंसू लेकर लाला जी दिल ही दिल में कहने लगे कि अफसोस जिस सच्चे दोस्त को मै रास्ता भर बुरा भला कहता आया ये सब उसी की मदद और सच्ची वफादारी का करिश्मा है। जो मुझे बताये बिना इतनी भारी रकम हर माह मेरे घरवालों को भेज कर दोस्ती का हक अदा करता रहा।
स्रोत – तारीख खित्ता ए पाक बिलग्राम