बिलग्राम की सच्ची कहानी तारीख के आइने में
जब घर में आई बरात, दुल्हन की रूह हुई परवाज़
*कमरुल खान की कलम से✍️*
बिलग्राम हरदोई ।।जब ईश्वर किसी बंदे को अपना प्रिय बना लेता है, तो उसके लिए अच्छे कर्म करना और इबादत या भक्ति करना आसान हो जाता है। उसकी जुबान और दिल लगातार ईश्वर की याद में डूबे रहते हैं उसको दुनिया की मोहब्बत से ज्यादा रब की मोहब्बत में सुकून हासिल होता है।
बिलग्राम नगर में भी एक ऐसी ही खातून (महिला) का जिक्र मिलता है जो बड़ी ही नेक और इबादत गुज़ार ईश्वर की उपासक थीं जिनके दिल मे यादे इलाही के अलावा कुछ भी न बस सका आप सभी लोग ये जरूर जानते होंगे कि बिलग्राम नगर में कयी मोहल्ले हैं जिनके अलग-अलग नाम हैं इन्हीं में से एक मोहल्ला खुर्दपुरा भी है जो मौहल्ला काजीपुरा के निकट स्थित है। इस मोहल्ले का नाम खुर्दपुरा क्यों पड़ा शायद अधिकतर लोग इससे अंजान होंगे आइए हम बताते हैं कि आखिर इस मोहल्ले का नाम खुर्दपुरा रखने के पीछे इतिहास कार क्या लिखते हैं अल्लामा गुलाम अली आज़ाद बिलग्रामी अपनी किताब मआसरुल किराम तारीख ए बिलग्राम में लिखते है कि नगर में बीबी ख़ुर्द नाम की एक महिला थीं जो बहुत इबादत करती थी। जब वो महिला बड़ी हुई तो माता-पिता को उनकी शादी की चिंता सताने लगी माता पिता ने उनकी शादी करने के लिए इजाजत मांगी तो बेटी ने शादी करने से मना कर दिया। बावजूद इसके कि लोग क्या कहेंगे उसके माता-पिता ने बीबी खुर्द की जबरन शादी तय कर दी । जब तय वक्त पर घर बारात आई तो नाऊनों ने बीबी खुर्द को सजाकर दुल्हन बनाया लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था दुल्हन बनी बीबी खुर्द के प्राण का पंछी उड़कर कुछ ही देर में ईश्वर से जा मिला।ये सारा माजरा देख माता-पिता पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा और उन्होंने उन्हीं कपड़ों और गहनों के साथ बीबीखुर्द को कब्र में दफना दिया। जब चोरों को इस बात का पता चला तो उन्होंने जेवरों और कीमती कपड़ों के लालच में कब्र खोदना शुरू कर दिया। जब चोरों ने कब्र खोल कर आभूषणों और कपड़ो को हांथ लगाने की कोशिश की तो वे सभी चोर ईश्वर शक्ति से अंधे हो गए और हैरान और परेशान होकर वहां से चले गए। जब यह बात सुबह लोगों में फैली तो इस चमत्कार से शोर मच गया लोग उनकी कब्र पर इकट्ठा हो गये। कुछ समय बाद बीबीखुर्द की मजार के आसपास लोग बस गये और उन्हीं के नाम से मोहल्ला खुर्दपुरा आबाद हो गया। बताया जाता है कि बीबीखुर्द की मजार पर उस वक्त लखनऊ के नवाब के आदेश पर एक मकबरा और पास में मस्जिद भी तामीर कराई गयी थी लेकिन वक्त के साथ साथ वो मकबरा ढह गया और मस्जिद खंडहर में तब्दील हो गयी सन 1948 में हेडकांसटेबल मुंशी सरफराज खां जब रिटायर होकर बिलग्राम आये तो उन्होंने अपने निजी पैसों से उस मस्जिद की मरम्मत कराई तब से लेकर आज तक मस्जिद का काम तो बार बार होता रहा लेकिन बीबीखुर्द की मजार की चहारदीवारी भी न बनवाई जा सकी। आज भी मजार के इर्द-गिर्द गंदगी और जानवरों का जमावड़ा लगा रहता है।
*खुसरो दरिया प्रेम का उल्टी वा की धार*
*जो उतरा वो डूब गया, जो डूबा सो पार*